ज़िन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है
अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है
शहरयार
उर्दु साहित्य में ग़ज़लों का अपना एक अलग ही महत्त्व हैं। ग़ज़लें जीवन के हर पहलू को स्पर्श करती आई है। चाहे वो ख़ुशी हो या ग़म, प्यार हो या शिकवा गिला, यारी हो या दुश्मनी, जीवन के हर भाव को अपने शब्दों में बयाँ करती है ग़ज़लें। यहाँ उर्दु तथा हिन्दी के कुछ जाने माने साहित्यकारों की रचनाओं को आप तक पहुँचाने कि एक कोशिश करना चाह रहा हूँ। आशा है आप इसे बढ़ाने में अपनी राय एवं अपना योगदान ज़रूर देंगे।
वो बुलायें तो क्या तमाशा हो
वो बुलायें तो क्या तमाशा हो
हम न जायें तो क्या तमाशा हो
ये किनारों से खेलने वाले
डूब जायें तो क्या तमाशा हो
बन्दापरवर जो हम पे गुज़री है
हम बतायें तो क्या तमाशा हो
आज हम भी तेरी वफ़ाओं पर
मुस्कुरायें तो क्या तमाशा हो
तेरी सूरत जो इत्तेफ़ाक़ से हम
भूल जायें तो क्या तमाशा हो
वक़्त की चन्द स'अतें 'साग़र'
लौट आयें तो क्या तमाशा हो
साग़र सिद्दीकी
हम न जायें तो क्या तमाशा हो
ये किनारों से खेलने वाले
डूब जायें तो क्या तमाशा हो
बन्दापरवर जो हम पे गुज़री है
हम बतायें तो क्या तमाशा हो
आज हम भी तेरी वफ़ाओं पर
मुस्कुरायें तो क्या तमाशा हो
तेरी सूरत जो इत्तेफ़ाक़ से हम
भूल जायें तो क्या तमाशा हो
वक़्त की चन्द स'अतें 'साग़र'
लौट आयें तो क्या तमाशा हो
साग़र सिद्दीकी
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबाँ नहीं मिलता
बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिस में धुआँ नहीं मिलता
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता
शहरयार
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबाँ नहीं मिलता
बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिस में धुआँ नहीं मिलता
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता
शहरयार
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ
न तो मैं किसी का हबीब हूँ न तो मैं किसी का रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ
मेरा रंग-रूप बिगड़ गया मेरा यार मुझ से बिछड़ गया
जो चमन फ़िज़ाँ में उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ
पढ़े फ़ातेहा कोई आये क्यूँ कोई चार फूल चढाये क्यूँ
कोई आके शम्मा जलाये क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँफ़िशाँ मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुख की पुकार हूँ
मुज़्तर खैराबादी
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ
न तो मैं किसी का हबीब हूँ न तो मैं किसी का रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ
मेरा रंग-रूप बिगड़ गया मेरा यार मुझ से बिछड़ गया
जो चमन फ़िज़ाँ में उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ
पढ़े फ़ातेहा कोई आये क्यूँ कोई चार फूल चढाये क्यूँ
कोई आके शम्मा जलाये क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँफ़िशाँ मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुख की पुकार हूँ
मुज़्तर खैराबादी
ये तो नहीं कि ग़म नहीं
ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ! मेरी आँख नम नहीं
तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं
अब न खुशी की है खुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं
मेरी नशिस्त है ज़मीं
खुल्द नहीं इरम नहीं
क़ीमत-ए-हुस्न दो जहाँ
कोई बड़ी रक़म नहीं
लेते हैं मोल दो जहाँ
दाम नहीं दिरम नहीं
सोम-ओ-सलात से फ़िराक़
मेरे गुनाह कम नहीं
मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
हाँ! मेरी आँख नम नहीं
तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं
अब न खुशी की है खुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं
मेरी नशिस्त है ज़मीं
खुल्द नहीं इरम नहीं
क़ीमत-ए-हुस्न दो जहाँ
कोई बड़ी रक़म नहीं
लेते हैं मोल दो जहाँ
दाम नहीं दिरम नहीं
सोम-ओ-सलात से फ़िराक़
मेरे गुनाह कम नहीं
मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
किस को क़ातिल मैं कहूं किस को मसीहा समझूं
किस को क़ातिल मैं कहूं किस को मसीहा समझूं
सब यहां दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूं
वो भी क्या दिन थे की हर वहम यकीं होता था
अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूं
दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे
ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूं
ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी
लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूं
अहमद नदीम क़ासमी
सब यहां दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूं
वो भी क्या दिन थे की हर वहम यकीं होता था
अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूं
दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे
ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूं
ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी
लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूं
अहमद नदीम क़ासमी
वो इत्तेफ़ाक़ से रस्ते में मिल गया था मुझे
वो इत्तेफ़ाक़ से रस्ते में मिल गया था मुझे
मैं देखता था उसे और वो देखता था मुझे
अगरचे उसकी नज़र में थी न आशनाई
मैं जानता हूँ कि बरसों से जानता था मुझे
तलाश कर न सका फिर मुझे वहाँ जाकर
ग़लत समझ के जहाँ उसने खो दिया था मुझे
बिखर चुका था अगर मैं तो क्यों समेटा था
मैं पैरहन था शिकस्ता तो क्यों सिया था मुझे
है मेरा हर्फ़-ए-तमन्ना, तेरी नज़र का क़ुसूर
तेरी नज़र ने ही ये हौसला दिया था मुझे
अख़्तर अंसारी
मैं देखता था उसे और वो देखता था मुझे
अगरचे उसकी नज़र में थी न आशनाई
मैं जानता हूँ कि बरसों से जानता था मुझे
तलाश कर न सका फिर मुझे वहाँ जाकर
ग़लत समझ के जहाँ उसने खो दिया था मुझे
बिखर चुका था अगर मैं तो क्यों समेटा था
मैं पैरहन था शिकस्ता तो क्यों सिया था मुझे
है मेरा हर्फ़-ए-तमन्ना, तेरी नज़र का क़ुसूर
तेरी नज़र ने ही ये हौसला दिया था मुझे
अख़्तर अंसारी
देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियां
देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियां
हम से है तेरा दर्द का नाता, देख हमें मत भूल मियां
अहल-ए-वफ़ा से बात न करना होगा तेरा उसूल मियां
हम क्यों छोड़ें इन गलियों के फेरों का मामूल मियां
ये तो कहो कभी इश्क़ किया है, जग में हुए हो रुसवा भी
इस के सिवा हम कुछ भी न पूछें, बाक़ी बात फ़िज़ूल मियां
अब तो हमें मंज़ूर है ये भी, शहर से निकलें रुसवा हों
तुझ को देखा, बातें कर लीं, मेहनत हुई वसूल मियां
इंशा जी क्या उज्र है तुमको, नक़्द-ए-दिल-ओ-जां नज़्र करो
रूपनगर के नाके पर ये लगता है महसूल मियां
इब्ने इंशा
(दश्त-ए-तलब: इच्छा का जंगल,
मामूल: दिनचर्या,
नाका: चुंगी,
महसूल: चुंगी पर वसूला जाने वाला टैक्स.)
हम से है तेरा दर्द का नाता, देख हमें मत भूल मियां
अहल-ए-वफ़ा से बात न करना होगा तेरा उसूल मियां
हम क्यों छोड़ें इन गलियों के फेरों का मामूल मियां
ये तो कहो कभी इश्क़ किया है, जग में हुए हो रुसवा भी
इस के सिवा हम कुछ भी न पूछें, बाक़ी बात फ़िज़ूल मियां
अब तो हमें मंज़ूर है ये भी, शहर से निकलें रुसवा हों
तुझ को देखा, बातें कर लीं, मेहनत हुई वसूल मियां
इंशा जी क्या उज्र है तुमको, नक़्द-ए-दिल-ओ-जां नज़्र करो
रूपनगर के नाके पर ये लगता है महसूल मियां
इब्ने इंशा
(दश्त-ए-तलब: इच्छा का जंगल,
मामूल: दिनचर्या,
नाका: चुंगी,
महसूल: चुंगी पर वसूला जाने वाला टैक्स.)
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो
आँखों में नमी हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो
बन जायेंगे ज़हर पीते पीते
ये अश्क जो पीते जा रहे हो
जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यों उन्हें छेड़े जा रहे हो
रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो
कैफ़ी आज़मी
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो
आँखों में नमी हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो
बन जायेंगे ज़हर पीते पीते
ये अश्क जो पीते जा रहे हो
जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यों उन्हें छेड़े जा रहे हो
रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो
कैफ़ी आज़मी
दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह
दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह
मैनें तुझसे चाँद सितारे कब माँगे
रौशन दिल बेदार नज़र दे या अल्लाह
सूरज सी इक चीज़ तो हम सब देख चुके
सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह
या धरती के ज़ख़्मों पर मरहम रख दे
या मेरा दिल पत्थर कर दे या अल्लाह
क़तील शिफ़ाई
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह
मैनें तुझसे चाँद सितारे कब माँगे
रौशन दिल बेदार नज़र दे या अल्लाह
सूरज सी इक चीज़ तो हम सब देख चुके
सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह
या धरती के ज़ख़्मों पर मरहम रख दे
या मेरा दिल पत्थर कर दे या अल्लाह
क़तील शिफ़ाई
झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं
झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं
तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता
मेरी तरह तेरा दिल बेक़रार है कि नहीं
वो पल के जिस में मुहब्बत जवान होती है
उस एक पल का तुझे इंतज़ार है कि नहीं
तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को
तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है कि नहीं
कैफ़ी आज़मी
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं
तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता
मेरी तरह तेरा दिल बेक़रार है कि नहीं
वो पल के जिस में मुहब्बत जवान होती है
उस एक पल का तुझे इंतज़ार है कि नहीं
तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को
तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है कि नहीं
कैफ़ी आज़मी
तिरे इश्क़ की इंतहा चाहता हूँ
तिरे इश्क़ की इंतहा चाहता हूँ
मिरी सादगी देख, क्या चाहता हूँ
सितम हो कि हो वादा-ए-बेहिजाबी
कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ
वे जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आपका सामना चाहता हूँ
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऎ अहले-महफ़िल
चिराग़े-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ
भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ
इक़बाल
(वादा-ए-बेहिजाबी=पर्दादारी हटाने का वादा;
सब्र-आज़मा=धैर्य की परीक्षा लेने वाली;
ज़ाहिदों=संयम से रहने वालों को)
मिरी सादगी देख, क्या चाहता हूँ
सितम हो कि हो वादा-ए-बेहिजाबी
कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ
वे जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आपका सामना चाहता हूँ
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऎ अहले-महफ़िल
चिराग़े-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ
भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ
इक़बाल
(वादा-ए-बेहिजाबी=पर्दादारी हटाने का वादा;
सब्र-आज़मा=धैर्य की परीक्षा लेने वाली;
ज़ाहिदों=संयम से रहने वालों को)
ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके
ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके
कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके
मेरी तबाही दिल पर तो रहम खा न सकी
जो रोशनी में रहे रोशनी को पा न सके
न जाने आह! कि उन आँसूओं पे क्या गुज़री
जो दिल से आँख तक आये मिश्गाँ तक आ न सके
रहें ख़ुलूस-ए-मुहब्बत के हादसात जहाँ
मुझे तो क्या मेरे नक़्श-ए-क़दम मिटा न सके
करेंगे मर के बक़ा-ए-दवाम क्या हासिल
जो ज़िंदा रह के मुक़ाम-ए-हयात पा न सके
नया ज़माना बनाने चले थे दीवाने
नई ज़मीं, नया आसमाँ बना न सके
जोश मलीहाबादी
कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके
मेरी तबाही दिल पर तो रहम खा न सकी
जो रोशनी में रहे रोशनी को पा न सके
न जाने आह! कि उन आँसूओं पे क्या गुज़री
जो दिल से आँख तक आये मिश्गाँ तक आ न सके
रहें ख़ुलूस-ए-मुहब्बत के हादसात जहाँ
मुझे तो क्या मेरे नक़्श-ए-क़दम मिटा न सके
करेंगे मर के बक़ा-ए-दवाम क्या हासिल
जो ज़िंदा रह के मुक़ाम-ए-हयात पा न सके
नया ज़माना बनाने चले थे दीवाने
नई ज़मीं, नया आसमाँ बना न सके
जोश मलीहाबादी
आदमी आदमी से मिलता है
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
जिगर मुरादाबादी
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
जिगर मुरादाबादी
असर उसको ज़रा नहीं होता
असर उसको ज़रा नहीं होता ।
रंज राहत-फिज़ा नहीं होता ।।
बेवफा कहने की शिकायत है,
तो भी वादा वफा नहीं होता ।
जिक़्रे-अग़ियार से हुआ मालूम,
हर्फ़े-नासेह बुरा नहीं होता ।
तुम हमारे किसी तरह न हुए,
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता ।
उसने क्या जाने क्या किया लेकर,
दिल किसी काम का नहीं होता ।
नारसाई से दम रुके तो रुके,
मैं किसी से खफ़ा नहीं होता ।
तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता ।
हाले-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर,
हाथ दिल से जुदा नहीं होता ।
क्यूं सुने अर्ज़े-मुज़तर ऐ ‘मोमिन’
सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता ।
-मोमिन ख़ाँ 'मोमिन'
(राहत फ़िज़ा--शांति देने वाला, ज़िक्र-ए-अग़यार--दुश्मनों की चर्चा
हर्फ़-ए-नासेह--शब्द नासेह (नासेह-नसीहत करने वाला)
यार--दोस्त-मित्र, चारा-ए-दिल--दिल का उपचार,
नारसाई--पहुँच से बाहर, अर्ज़ेमुज़्तर--व्याकुल मन का आवेदन)
रंज राहत-फिज़ा नहीं होता ।।
बेवफा कहने की शिकायत है,
तो भी वादा वफा नहीं होता ।
जिक़्रे-अग़ियार से हुआ मालूम,
हर्फ़े-नासेह बुरा नहीं होता ।
तुम हमारे किसी तरह न हुए,
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता ।
उसने क्या जाने क्या किया लेकर,
दिल किसी काम का नहीं होता ।
नारसाई से दम रुके तो रुके,
मैं किसी से खफ़ा नहीं होता ।
तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता ।
हाले-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर,
हाथ दिल से जुदा नहीं होता ।
क्यूं सुने अर्ज़े-मुज़तर ऐ ‘मोमिन’
सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता ।
-मोमिन ख़ाँ 'मोमिन'
(राहत फ़िज़ा--शांति देने वाला, ज़िक्र-ए-अग़यार--दुश्मनों की चर्चा
हर्फ़-ए-नासेह--शब्द नासेह (नासेह-नसीहत करने वाला)
यार--दोस्त-मित्र, चारा-ए-दिल--दिल का उपचार,
नारसाई--पहुँच से बाहर, अर्ज़ेमुज़्तर--व्याकुल मन का आवेदन)
वो अपने चेहरे में सौ अफ़ताब रखते हैं
वो अपने चेहरे में सौ अफ़ताब रखते हैं
इसीलिये तो वो रुख़ पे नक़ाब रखते हैं
वो पास बैठे तो आती है दिलरुबा ख़ुश्बू
वो अपने होठों पे खिलते गुलाब रखते हैं
हर एक वर्क़ में तुम ही तुम हो जान-ए-महबूबी
हम अपने दिल की कुछ ऐसी किताब रखते हैं
जहान-ए-इश्क़ में सोहनी कहीं दिखाई दे
हम अपनी आँख में कितने चेनाब रखते हैं
हसरत जयपुरी
इसीलिये तो वो रुख़ पे नक़ाब रखते हैं
वो पास बैठे तो आती है दिलरुबा ख़ुश्बू
वो अपने होठों पे खिलते गुलाब रखते हैं
हर एक वर्क़ में तुम ही तुम हो जान-ए-महबूबी
हम अपने दिल की कुछ ऐसी किताब रखते हैं
जहान-ए-इश्क़ में सोहनी कहीं दिखाई दे
हम अपनी आँख में कितने चेनाब रखते हैं
हसरत जयपुरी
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मु'अय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूँ सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़हद
पर तबीयत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता
बू-ए-चारागर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुमको मगर नहीं आती
ग़ालिब
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मु'अय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूँ सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़हद
पर तबीयत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता
बू-ए-चारागर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुमको मगर नहीं आती
ग़ालिब
दिल में इक लहर सी उठी है अभी
दिल में इक लहर सी उठी है अभी
कोई ताज़ा हवा चली है अभी
शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी
कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी
और ये चोट भी नई है अभी
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी
तू शरीक-ए-सुख़न नहीं है तो क्या
हम-सुख़न तेरी ख़ामोशी है अभी
याद के बे-निशाँ जज़ीरों से
तेरी आवाज़ आ रही है अभी
शहर की बेचराग़ गलियों में
ज़िन्दगी तुझ को ढूँढती है अभी
सो गये लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी
तुम तो यारो अभी से उठ बैठे
शहर में रात जागती है अभी
वक़्त अच्छा भी आयेगा 'नासिर'
ग़म न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी
नासिर काज़मी
कोई ताज़ा हवा चली है अभी
शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी
कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी
और ये चोट भी नई है अभी
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी
तू शरीक-ए-सुख़न नहीं है तो क्या
हम-सुख़न तेरी ख़ामोशी है अभी
याद के बे-निशाँ जज़ीरों से
तेरी आवाज़ आ रही है अभी
शहर की बेचराग़ गलियों में
ज़िन्दगी तुझ को ढूँढती है अभी
सो गये लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी
तुम तो यारो अभी से उठ बैठे
शहर में रात जागती है अभी
वक़्त अच्छा भी आयेगा 'नासिर'
ग़म न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी
नासिर काज़मी
नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उन के आने के दिन आ रहे हैं
जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है
सब उन को सुनाने के दिन आ रहे हैं
अभी से दिल-ओ-जाँ सर-ए-राह रख दो
के लुटने लुटाने के दिन आ रहे हैं
टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं
सबा फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं
चलो "फ़ैज़" फिर से कहीं दिल लगायेँ
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
क़रीब उन के आने के दिन आ रहे हैं
जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है
सब उन को सुनाने के दिन आ रहे हैं
अभी से दिल-ओ-जाँ सर-ए-राह रख दो
के लुटने लुटाने के दिन आ रहे हैं
टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं
सबा फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं
चलो "फ़ैज़" फिर से कहीं दिल लगायेँ
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
लेबल:
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी
सुबह से श्याम तक बोझ ढाता हुआ
अपनी ही लाश पर खुद मजार आदमी
हर तरफ़ भागते दौडते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी
रोज जीता हुआ रोज मरता हुआ
हर नए दिन नया इंतजार आदमी
जिंदगी का मुकद्दर सफ़र दर सफ़र
आखरी सांस तक बेकरार आदमी
निदा फ़ाज़ली
फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी
सुबह से श्याम तक बोझ ढाता हुआ
अपनी ही लाश पर खुद मजार आदमी
हर तरफ़ भागते दौडते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी
रोज जीता हुआ रोज मरता हुआ
हर नए दिन नया इंतजार आदमी
जिंदगी का मुकद्दर सफ़र दर सफ़र
आखरी सांस तक बेकरार आदमी
निदा फ़ाज़ली
दर्द अपनाता है पराये कौन
दर्द अपनाता है पराये कौन
कौन सुनता है और सुनाये कौन
कौन दोहराये वो पुरानी बात
ग़म अभी सोया है जगाये कौन
वो जो अपने है क्या वो अपने है
कौन दुख झेले आज़माये कौन
अब सुकूं है तो भूलने में है
लेकीन उस शख़्स को भुलाये कौन
आज फिर दिल है कुछ उदास उदास
देखिये आज याद आये कौन
जावेद अख़्तर.
कौन सुनता है और सुनाये कौन
कौन दोहराये वो पुरानी बात
ग़म अभी सोया है जगाये कौन
वो जो अपने है क्या वो अपने है
कौन दुख झेले आज़माये कौन
अब सुकूं है तो भूलने में है
लेकीन उस शख़्स को भुलाये कौन
आज फिर दिल है कुछ उदास उदास
देखिये आज याद आये कौन
जावेद अख़्तर.
इस से पहले के बेवफ़ा हो जाये
इस से पहले के बेवफ़ा हो जाये
क्यों ना ऐ दोस्त हम जुदा हो जाये
तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल क्या से क्या हो जाये
हम भी मजबूरियों का उज़्र करे
और कहीं और मुबतला हो जाये
इश्क़ भी खेल हैं नसीबों का
ख़ाक हो जाये या किमिया हो जाये
अहमद फ़राज़.
आ भी जाओ की ज़िंदगी कम है
आ भी जाओ की ज़िंदगी कम है
तुम नहीं हो तो हर ख़ुशी कम है
वादा कर के ये कौन आया नहीं
शहर में आज रौशनी कम है
जाने क्या हो गया है मौसम को
धूप ज़ियादा है चांदनी कम है
आईना देख कर ख़याल आया
आज कल इनकी दोस्ती कम है
तेरे दम से ही मैं मुकम्मल हूं
बिन तेरे तेरी 'यामीनी' कम है.
यामीनी दास.
तुम नहीं हो तो हर ख़ुशी कम है
वादा कर के ये कौन आया नहीं
शहर में आज रौशनी कम है
जाने क्या हो गया है मौसम को
धूप ज़ियादा है चांदनी कम है
आईना देख कर ख़याल आया
आज कल इनकी दोस्ती कम है
तेरे दम से ही मैं मुकम्मल हूं
बिन तेरे तेरी 'यामीनी' कम है.
यामीनी दास.
सज़ा का हाल सुनाये जज़ा की बात करें
सज़ा का हाल सुनाये जज़ा की बात करें
ख़ुदा मिला हो जिन्हें वो ख़ुदा की बात करें
उन्हें पता भी चले और वो ख़फ़ा भी ना हो
इस एहतियात से क्या मज़ा की बात करें
हमारे अहद की तहज़ीब में क़बा ही नहीं
अगर क़बा हो तो बन्द-ए-क़बा की बात करें
हर एक दौर का मज़हब नया ख़ुदा लाता
करें तो हम भी मगर किस ख़ुदा की बात करें
वफ़ाशियार कई हैं कोई हसीं भी तो हो
चलो फिर आज उसी बेवफ़ा की बात करें
साहिर लुधयानवी.
ख़ुदा मिला हो जिन्हें वो ख़ुदा की बात करें
उन्हें पता भी चले और वो ख़फ़ा भी ना हो
इस एहतियात से क्या मज़ा की बात करें
हमारे अहद की तहज़ीब में क़बा ही नहीं
अगर क़बा हो तो बन्द-ए-क़बा की बात करें
हर एक दौर का मज़हब नया ख़ुदा लाता
करें तो हम भी मगर किस ख़ुदा की बात करें
वफ़ाशियार कई हैं कोई हसीं भी तो हो
चलो फिर आज उसी बेवफ़ा की बात करें
साहिर लुधयानवी.
लेबल:
साहिर लुधयानवी
ज़िंदगी तूने लहू लेके दिया कुछ भी नहीं
ज़िंदगी तूने लहू लेके दिया कुछ भी नहीं
तेरे दामन में मेरे वास्ते क्या कुछ भी नहीं
मेरे इन हाथों की चाहो तो तलाशी ले लो
मेरे हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं
हमने देखा है कई ऐसे ख़ुदाओं को यहां
सामने जीन के वो सच मुच का खुदा कुछ भी नहीं
या ख़ुदा अब के ये किस रंग से आई है बहार
जर्द ही ज़र्द है पेडों पे हरा कुछ भी नहीं
दिल भी इक जिद पे अडा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिये या कुछ भी नहीं
राजेश रेड्डी.
तेरे दामन में मेरे वास्ते क्या कुछ भी नहीं
मेरे इन हाथों की चाहो तो तलाशी ले लो
मेरे हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं
हमने देखा है कई ऐसे ख़ुदाओं को यहां
सामने जीन के वो सच मुच का खुदा कुछ भी नहीं
या ख़ुदा अब के ये किस रंग से आई है बहार
जर्द ही ज़र्द है पेडों पे हरा कुछ भी नहीं
दिल भी इक जिद पे अडा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिये या कुछ भी नहीं
राजेश रेड्डी.
उम्र जलवों में बसर हो ज़रूरी तो नहीं
उम्र जलवों में बसर हो ज़रूरी तो नहीं
हर शब-ए-ग़म की सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं
चश्म-ए-साक़ी से पियो या लब-ए-साग़र से पियो
बेख़ुदी आठों पहर हो ये ज़रूरी तो नहीं
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है
उनकी अगोश मे सर हो ये ज़रूरी तो नहीं
शेख़ करता तो है मस्जिद में ख़ुदा को सजदे
उसके सजदों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं
सब की नज़रों में हो साक़ी ये ज़रूरी है मगर
सब पे साक़ी की नज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं
ख़ामोश दहेलवी.
हर शब-ए-ग़म की सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं
चश्म-ए-साक़ी से पियो या लब-ए-साग़र से पियो
बेख़ुदी आठों पहर हो ये ज़रूरी तो नहीं
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है
उनकी अगोश मे सर हो ये ज़रूरी तो नहीं
शेख़ करता तो है मस्जिद में ख़ुदा को सजदे
उसके सजदों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं
सब की नज़रों में हो साक़ी ये ज़रूरी है मगर
सब पे साक़ी की नज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं
ख़ामोश दहेलवी.
लेबल:
ख़ामोश दहेलवी
कोई चेहरा हुआ रोशन न उजागर आंखें
कोई चेहरा हुआ रोशन न उजागर आंखें
आईना देख रही थी मेरी पत्थर आंखें
ले उडी वक़्त की आंधी जिन्हे अपने हमराह
आज फिर ढूंढ रही है वही मंज़र आंखें
फूट निकली तो कई शहर-ए-तमन्ना डूबे
एक क़तरे को तरसती हुई बंजर आंखें
उस को देखा है तो अब शौक़ का वो आलम है
अपने हलकों से निकल आई हैं बाहर आंखें
तू निगाहों की जुबां खूब समझता होगा
तेरी जानिब तो उठा करती हैं अक्सर आंखें
लोग मरते ना दर-ओ-बाम से टकरा के कभी
देख लेते जो 'कमाल' उस की समंदर आंखें
अहमद कमाल.
आईना देख रही थी मेरी पत्थर आंखें
ले उडी वक़्त की आंधी जिन्हे अपने हमराह
आज फिर ढूंढ रही है वही मंज़र आंखें
फूट निकली तो कई शहर-ए-तमन्ना डूबे
एक क़तरे को तरसती हुई बंजर आंखें
उस को देखा है तो अब शौक़ का वो आलम है
अपने हलकों से निकल आई हैं बाहर आंखें
तू निगाहों की जुबां खूब समझता होगा
तेरी जानिब तो उठा करती हैं अक्सर आंखें
लोग मरते ना दर-ओ-बाम से टकरा के कभी
देख लेते जो 'कमाल' उस की समंदर आंखें
अहमद कमाल.
कच्ची दीवार हूं
कच्ची दीवार हूं ठोकर ना लगाना मुझको
अपनी नज़रों में बसा कर ना गिराना मुझको
तुम को आंखों में तसव्वुर की तरह रखता हूं
दिल में धडकन की तरह तुम भी बसाना मुझको
बात करने में जो मुश्किल हो तुम्हें महफ़िल में
मैं समझ जाऊंगा नज़रों से बताना मुझको
वादा उतना ही करो जितना निभा सकते हो
ख़्वाब पूरा जो ना हो वो ना दिखाना मुझको
अपने रिश्ते की नज़ाकत का भरम रख लेना
मैं तो आशिक़ हूं दिवाना ना बनाना मुझको
असरार अंसारी.
अपनी नज़रों में बसा कर ना गिराना मुझको
तुम को आंखों में तसव्वुर की तरह रखता हूं
दिल में धडकन की तरह तुम भी बसाना मुझको
बात करने में जो मुश्किल हो तुम्हें महफ़िल में
मैं समझ जाऊंगा नज़रों से बताना मुझको
वादा उतना ही करो जितना निभा सकते हो
ख़्वाब पूरा जो ना हो वो ना दिखाना मुझको
अपने रिश्ते की नज़ाकत का भरम रख लेना
मैं तो आशिक़ हूं दिवाना ना बनाना मुझको
असरार अंसारी.
यूं तेरी रहगुज़र से दिवानावार गुज़रे
यूं तेरी रहगुज़र से दिवानावार गुज़रे
कांधे पे अपने रख के अपना मज़ार गुज़रे
बैठे रहे हैं रास्ता में दिल का ख़ंडर सजा कर
शायद इसी तरफ़ से एक दिन बहार गुज़रे
बहती हुई ये नदिया घुलते हुए किनारे
कोई तो पार उतरे कोई तो पार गुज़रे
तू ने भी हमको देखा हमने भी तुमको देखा
तू दिल ही हार गुज़रा हम जान हार गुज़रे
मीना कुमारी.
कांधे पे अपने रख के अपना मज़ार गुज़रे
बैठे रहे हैं रास्ता में दिल का ख़ंडर सजा कर
शायद इसी तरफ़ से एक दिन बहार गुज़रे
बहती हुई ये नदिया घुलते हुए किनारे
कोई तो पार उतरे कोई तो पार गुज़रे
तू ने भी हमको देखा हमने भी तुमको देखा
तू दिल ही हार गुज़रा हम जान हार गुज़रे
मीना कुमारी.
हुस्न जब मेहेरबां हो तो क्या कीजिये
हुस्न जब मेहेरबां हो तो क्या कीजिये
इश्क़ की मग्फिरत की दुआ कीजिये
इस सलीक़े से उन से गिला कीजिये
जब गिला कीजिये हंस दिया कीजिये
दूसरों पे अगर तबसीरा कीजिये
सामने आईना रख लिया कीजिये
आप सुख से हैं तर्क-ए-त'अल्लुक़ के बाद
इतनी जल्दी ना ये फैसला कीजिये
कोई धोखा न खा जाये मेरी तरह
ऐसे खुल के न सबसे मिला कीजिये
अक़्ल-ओ-दिल अपनी अपनी कहें जब खुमार
अक़्ल की सुनीये दिल का कहा कीजिये
ख़ुमार बाराबंकवी.
इश्क़ की मग्फिरत की दुआ कीजिये
इस सलीक़े से उन से गिला कीजिये
जब गिला कीजिये हंस दिया कीजिये
दूसरों पे अगर तबसीरा कीजिये
सामने आईना रख लिया कीजिये
आप सुख से हैं तर्क-ए-त'अल्लुक़ के बाद
इतनी जल्दी ना ये फैसला कीजिये
कोई धोखा न खा जाये मेरी तरह
ऐसे खुल के न सबसे मिला कीजिये
अक़्ल-ओ-दिल अपनी अपनी कहें जब खुमार
अक़्ल की सुनीये दिल का कहा कीजिये
ख़ुमार बाराबंकवी.
ऐ मोहब्बत
ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया
यूं तो हर शाम उम्मिदों में गुजर जाती थी
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया
कभी तकदीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंजिल-ए-इश्क़ में हर दाम पे रोना आया
जब हुआ जिक्र जमाने में मोहब्बत का शकिल
मुझको अपने दिल-ए-नादान पे रोना आया
शकिल बदायुनी.
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया
यूं तो हर शाम उम्मिदों में गुजर जाती थी
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया
कभी तकदीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंजिल-ए-इश्क़ में हर दाम पे रोना आया
जब हुआ जिक्र जमाने में मोहब्बत का शकिल
मुझको अपने दिल-ए-नादान पे रोना आया
शकिल बदायुनी.
राक्षस था, न खुदा था पहले
राक्षस था, न खुदा था पहले
आदमी कितना बडा था पहले
आस्मां, खेत, समुंदर सब लाल
खून कागज पे उगा था पहले
मैं वो मक्तूल, जो कातिल ना बना
हाथ मेरा भी उठा था पहले
अब किसी से भी शिकायत न रही
जाने किस किस से गिला था पहले
शहर तो बाद में वीरान हुआ
मेरा घर खाक हुआ था पहले
निदा फ़ाज़ली.
आदमी कितना बडा था पहले
आस्मां, खेत, समुंदर सब लाल
खून कागज पे उगा था पहले
मैं वो मक्तूल, जो कातिल ना बना
हाथ मेरा भी उठा था पहले
अब किसी से भी शिकायत न रही
जाने किस किस से गिला था पहले
शहर तो बाद में वीरान हुआ
मेरा घर खाक हुआ था पहले
निदा फ़ाज़ली.
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