Showing posts with label जाँ निसार अख़्तर. Show all posts
Showing posts with label जाँ निसार अख़्तर. Show all posts

आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो

आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो
साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो।

जब शाख़ कोई हाथ लगाते ही चमन में
शरमाए लचक जाए तो लगता है कि तुम हो।

संदल से महकती हुई पुर-कैफ़ हवा का
झोंका कोई टकराए तो लगता है कि तुम हो।

ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर
नदी कोई बल खाए तो लगता है कि तुम हो।

जब रात गए कोई किरन मेरे बराबर
चुप-चाप सी सो जाए तो लगता है कि तुम हो।

- जाँ निसार अख़्तर

जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये


जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाये|

तिश्नगी कुछ तो बुझे तिश्नालब-ए-ग़म की
इक नदी दर्द के शहरों में बहा दी जाये|

हम ने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ लिया
क्या बुरा है जो ये अफ़वाह उड़ा दी जाये|

हम को गुज़री हुई सदियाँ तो न पहचानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये|

फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लवें
शर्त ये है के उन्हें ख़ूब हवा दी जाये|

कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाये|

हम से पूछो ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या है
चन्द लफ़्ज़ों में कोई आह छुपा दी जाये|

जाँ निसार अख़्तर

हर एक रूह में

हर एक रूह में एक ग़म छुपा लगे है मुझे
ये जिंदगी तो कोई बददुआ लगे है मुझे

न जाने वक़्त की रफ़्तार क्या दिखाती है?
कभी कभी तो बडा ख़ौफ़ सा लगे है मुझे

अब एक-आध कदम का हिसाब क्या रखे?
अभी तलक तो वही फ़ासला लगे है मुझ

दबाके आई है सिने में कौन सी आहें
कुछ आज रंग तेरा सांवला लगे है मुझे



जाँ निसार अख़्तर