जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आईना रखना
यूं उजालों से वास्ता रखना
शमा के पास ही हवा रखना
घर की तामिर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की कुछ जगह रखना
मिलना जुलना जहा ज़रूरी हो
मिलने ज़ुलने का हौसला रखना
निदा फ़ाज़ली.
उर्दु साहित्य में ग़ज़लों का अपना एक अलग ही महत्त्व हैं। ग़ज़लें जीवन के हर पहलू को स्पर्श करती आई है। चाहे वो ख़ुशी हो या ग़म, प्यार हो या शिकवा गिला, यारी हो या दुश्मनी, जीवन के हर भाव को अपने शब्दों में बयाँ करती है ग़ज़लें। यहाँ उर्दु तथा हिन्दी के कुछ जाने माने साहित्यकारों की रचनाओं को आप तक पहुँचाने कि एक कोशिश करना चाह रहा हूँ। आशा है आप इसे बढ़ाने में अपनी राय एवं अपना योगदान ज़रूर देंगे।
मुझे फिर वही याद
मुझे फिर वही याद आने लगे है
जिन्हे भुलाने में ज़माने लगे है
सुना है हमे वो भुलाने लगे है
तो क्या हम उन्हे याद आने लगे है?
ये कहना है उनसे मोहब्बत है मुझको
ये कहने में उनसे ज़माने लगे है
क़यामत यकिनन क़रीब आ गई है
'ख़ुमार' अब तो मस्जिद में जाने लगे है
ख़ुमार बाराबंकवी.
जिन्हे भुलाने में ज़माने लगे है
सुना है हमे वो भुलाने लगे है
तो क्या हम उन्हे याद आने लगे है?
ये कहना है उनसे मोहब्बत है मुझको
ये कहने में उनसे ज़माने लगे है
क़यामत यकिनन क़रीब आ गई है
'ख़ुमार' अब तो मस्जिद में जाने लगे है
ख़ुमार बाराबंकवी.
अपने होठों पर सजाना चाहता हूं
अपने होठों पर सजाना चाहता हूं
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूं
कोई आसू तेरे दामन पर गिराकर
बूंद को मोती बनाना चाहता हूं
थक गया मैं करते करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूं
छा रहा हैं सारी बस्ती में अंधेरा
रोशनी को घर जलाना चाहता हूं
आखरी हिचकी तेरे शानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूं
कतील शिफ़ाई.
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूं
कोई आसू तेरे दामन पर गिराकर
बूंद को मोती बनाना चाहता हूं
थक गया मैं करते करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूं
छा रहा हैं सारी बस्ती में अंधेरा
रोशनी को घर जलाना चाहता हूं
आखरी हिचकी तेरे शानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूं
कतील शिफ़ाई.
पत्थर सुलग रहे थे कोई नक्श-ए-पा न था
पत्थर सुलग रहे थे कोई नक्श-ए-पा न था
हम उस तरफ़ चले थे जिधर रास्ता न था
परछाईयों के शहर की तनहाईयां न पुछ
अपना शरीक-ए-ग़म कोई अपने सिवा न था
यूं देखती हैं गुमशुदा लम्हों के मोड से
इस जिंदगी से जैसे कोई वास्ता न था
चेहरों पे जम गई थी ख़यालों की उलझनें
लफ़्जों की जुस्तजु में कोई बोलता न था
मुमताज राशीद.
हम उस तरफ़ चले थे जिधर रास्ता न था
परछाईयों के शहर की तनहाईयां न पुछ
अपना शरीक-ए-ग़म कोई अपने सिवा न था
यूं देखती हैं गुमशुदा लम्हों के मोड से
इस जिंदगी से जैसे कोई वास्ता न था
चेहरों पे जम गई थी ख़यालों की उलझनें
लफ़्जों की जुस्तजु में कोई बोलता न था
मुमताज राशीद.
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