काश! ऐसा कोई मंज़र होता

काश ऐसा कोई मंज़र होता
मेरे कांधे पे तेरा सर होता

जमा करता जो मैं आये हुये संग
सर छुपाने के लिये घर होता

इस बुलंदी पे बहुत तनहा हू
काश मैं सबके बराबर होता

उस ने उलझा दिया दुनिया में मुझे
वरना इक और क़लंदर होता

ताहिर फ़राज़

4 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूब ..

Dr Varsha Singh said...

आपका ब्लॉग शायरी के खूबसूरत गुलदस्ते की तरह खूबसूरत है। यहां आ कर प्रसन्नता हुई।

हार्दिक शुभकामनायें।

Mohsin ansari said...

बहुत ग़ज़ल

Anonymous said...

खूबसूरत गज़ल