हम तो बचपन में भी अकेले थे
सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे
एक तरफ़ मोर्चे थे पलकों के
एक तरफ़ आंसूओं के रेले थे
थी सजी हसरतें दूकानों पर
ज़िंदगी के अजीब मेले थे
आज ज़हनों दिल भुखे मरते हैं
उन दिनों फ़ाके भी हम ने झेले हैं
खुदकशी क्या ग़मों हल बनती
मौत के अपने भी सौ झमेले हैं
जावेद अख्तर
उर्दु साहित्य में ग़ज़लों का अपना एक अलग ही महत्त्व हैं। ग़ज़लें जीवन के हर पहलू को स्पर्श करती आई है। चाहे वो ख़ुशी हो या ग़म, प्यार हो या शिकवा गिला, यारी हो या दुश्मनी, जीवन के हर भाव को अपने शब्दों में बयाँ करती है ग़ज़लें। यहाँ उर्दु तथा हिन्दी के कुछ जाने माने साहित्यकारों की रचनाओं को आप तक पहुँचाने कि एक कोशिश करना चाह रहा हूँ। आशा है आप इसे बढ़ाने में अपनी राय एवं अपना योगदान ज़रूर देंगे।
लगता नहीं है जी मेरा उजडे दयार में
लगता नहीं है जी मेरा उजडे दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में
कह दो इन हसरतों से कही और जा बसे
इतनी जगह कहां हैं दिल-ए-दागदार में
उम्र-ए-दराज़ मांग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में
कितना है बद नसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए- यार में
बहादुरशहा ज़फ़र
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में
कह दो इन हसरतों से कही और जा बसे
इतनी जगह कहां हैं दिल-ए-दागदार में
उम्र-ए-दराज़ मांग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में
कितना है बद नसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए- यार में
बहादुरशहा ज़फ़र
पत्थर के ख़ुदा वहां भी पाये
पत्थर के ख़ुदा वहां भी पाये
हम चांद से आज लौट आये
दिवारें तो हर तरफ खडी हैं
क्या हो गया मेहरबां साये
जंगल की हवायें आ रही हैं
कागज़ का ये शहर उड ना जाये
सहरा सहरा लहू के खेमे
फिर प्यासे लब-ए-फ़ुरात आये.
क़ैफ़ी आज़मी
हम चांद से आज लौट आये
दिवारें तो हर तरफ खडी हैं
क्या हो गया मेहरबां साये
जंगल की हवायें आ रही हैं
कागज़ का ये शहर उड ना जाये
सहरा सहरा लहू के खेमे
फिर प्यासे लब-ए-फ़ुरात आये.
क़ैफ़ी आज़मी
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