हम उन्हें वो हमें भुला बैठे


हम उन्हें वो हमें भुला बैठे
दो गुनहगार ज़हर खा बैठे|

हाल--ग़म कह-कह के ग़म बढ़ा बैठे
तीर मारे थे तीर खा बैठे|

आंधियो जाओ अब आराम करो
हम ख़ुद अपना दिया बुझा बैठे|

जी तो हल्का हुआ मगर यारो
रो के हम लुत्फ़--गम बढ़ा बैठे|

बेसहारों का हौसला ही क्या
घर में घबराए दर पे बैठे|

जब से बिछड़े वो मुस्कुराए हम
सब ने छेड़ा तो लब हिला बैठे|

उठ के इक बेवफ़ा ने दे दी जान
रह गए सारे बावफ़ा बैठे|

हश्र का दिन है अभी दूर 'ख़ुमार'
आप क्यों जाहिदों में जा बैठे|

ख़ुमार बाराबंकवी
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2 comments:

Anonymous said...

nice ghazal.

Mohsin ansari said...

very nice gazal