ज़िन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है
अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है
शहरयार
उर्दु साहित्य में ग़ज़लों का अपना एक अलग ही महत्त्व हैं। ग़ज़लें जीवन के हर पहलू को स्पर्श करती आई है। चाहे वो ख़ुशी हो या ग़म, प्यार हो या शिकवा गिला, यारी हो या दुश्मनी, जीवन के हर भाव को अपने शब्दों में बयाँ करती है ग़ज़लें। यहाँ उर्दु तथा हिन्दी के कुछ जाने माने साहित्यकारों की रचनाओं को आप तक पहुँचाने कि एक कोशिश करना चाह रहा हूँ। आशा है आप इसे बढ़ाने में अपनी राय एवं अपना योगदान ज़रूर देंगे।
वो बुलायें तो क्या तमाशा हो
वो बुलायें तो क्या तमाशा हो
हम न जायें तो क्या तमाशा हो
ये किनारों से खेलने वाले
डूब जायें तो क्या तमाशा हो
बन्दापरवर जो हम पे गुज़री है
हम बतायें तो क्या तमाशा हो
आज हम भी तेरी वफ़ाओं पर
मुस्कुरायें तो क्या तमाशा हो
तेरी सूरत जो इत्तेफ़ाक़ से हम
भूल जायें तो क्या तमाशा हो
वक़्त की चन्द स'अतें 'साग़र'
लौट आयें तो क्या तमाशा हो
साग़र सिद्दीकी
हम न जायें तो क्या तमाशा हो
ये किनारों से खेलने वाले
डूब जायें तो क्या तमाशा हो
बन्दापरवर जो हम पे गुज़री है
हम बतायें तो क्या तमाशा हो
आज हम भी तेरी वफ़ाओं पर
मुस्कुरायें तो क्या तमाशा हो
तेरी सूरत जो इत्तेफ़ाक़ से हम
भूल जायें तो क्या तमाशा हो
वक़्त की चन्द स'अतें 'साग़र'
लौट आयें तो क्या तमाशा हो
साग़र सिद्दीकी
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