सज़ा का हाल सुनाये जज़ा की बात करें
ख़ुदा मिला हो जिन्हें वो ख़ुदा की बात करें
उन्हें पता भी चले और वो ख़फ़ा भी ना हो
इस एहतियात से क्या मज़ा की बात करें
हमारे अहद की तहज़ीब में क़बा ही नहीं
अगर क़बा हो तो बन्द-ए-क़बा की बात करें
हर एक दौर का मज़हब नया ख़ुदा लाता
करें तो हम भी मगर किस ख़ुदा की बात करें
वफ़ाशियार कई हैं कोई हसीं भी तो हो
चलो फिर आज उसी बेवफ़ा की बात करें
साहिर लुधयानवी.
उर्दु साहित्य में ग़ज़लों का अपना एक अलग ही महत्त्व हैं। ग़ज़लें जीवन के हर पहलू को स्पर्श करती आई है। चाहे वो ख़ुशी हो या ग़म, प्यार हो या शिकवा गिला, यारी हो या दुश्मनी, जीवन के हर भाव को अपने शब्दों में बयाँ करती है ग़ज़लें। यहाँ उर्दु तथा हिन्दी के कुछ जाने माने साहित्यकारों की रचनाओं को आप तक पहुँचाने कि एक कोशिश करना चाह रहा हूँ। आशा है आप इसे बढ़ाने में अपनी राय एवं अपना योगदान ज़रूर देंगे।
ज़िंदगी तूने लहू लेके दिया कुछ भी नहीं
ज़िंदगी तूने लहू लेके दिया कुछ भी नहीं
तेरे दामन में मेरे वास्ते क्या कुछ भी नहीं
मेरे इन हाथों की चाहो तो तलाशी ले लो
मेरे हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं
हमने देखा है कई ऐसे ख़ुदाओं को यहां
सामने जीन के वो सच मुच का खुदा कुछ भी नहीं
या ख़ुदा अब के ये किस रंग से आई है बहार
जर्द ही ज़र्द है पेडों पे हरा कुछ भी नहीं
दिल भी इक जिद पे अडा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिये या कुछ भी नहीं
राजेश रेड्डी.
तेरे दामन में मेरे वास्ते क्या कुछ भी नहीं
मेरे इन हाथों की चाहो तो तलाशी ले लो
मेरे हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं
हमने देखा है कई ऐसे ख़ुदाओं को यहां
सामने जीन के वो सच मुच का खुदा कुछ भी नहीं
या ख़ुदा अब के ये किस रंग से आई है बहार
जर्द ही ज़र्द है पेडों पे हरा कुछ भी नहीं
दिल भी इक जिद पे अडा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिये या कुछ भी नहीं
राजेश रेड्डी.
उम्र जलवों में बसर हो ज़रूरी तो नहीं
उम्र जलवों में बसर हो ज़रूरी तो नहीं
हर शब-ए-ग़म की सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं
चश्म-ए-साक़ी से पियो या लब-ए-साग़र से पियो
बेख़ुदी आठों पहर हो ये ज़रूरी तो नहीं
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है
उनकी अगोश मे सर हो ये ज़रूरी तो नहीं
शेख़ करता तो है मस्जिद में ख़ुदा को सजदे
उसके सजदों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं
सब की नज़रों में हो साक़ी ये ज़रूरी है मगर
सब पे साक़ी की नज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं
ख़ामोश दहेलवी.
हर शब-ए-ग़म की सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं
चश्म-ए-साक़ी से पियो या लब-ए-साग़र से पियो
बेख़ुदी आठों पहर हो ये ज़रूरी तो नहीं
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है
उनकी अगोश मे सर हो ये ज़रूरी तो नहीं
शेख़ करता तो है मस्जिद में ख़ुदा को सजदे
उसके सजदों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं
सब की नज़रों में हो साक़ी ये ज़रूरी है मगर
सब पे साक़ी की नज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं
ख़ामोश दहेलवी.
लेबल:
ख़ामोश दहेलवी
कोई चेहरा हुआ रोशन न उजागर आंखें
कोई चेहरा हुआ रोशन न उजागर आंखें
आईना देख रही थी मेरी पत्थर आंखें
ले उडी वक़्त की आंधी जिन्हे अपने हमराह
आज फिर ढूंढ रही है वही मंज़र आंखें
फूट निकली तो कई शहर-ए-तमन्ना डूबे
एक क़तरे को तरसती हुई बंजर आंखें
उस को देखा है तो अब शौक़ का वो आलम है
अपने हलकों से निकल आई हैं बाहर आंखें
तू निगाहों की जुबां खूब समझता होगा
तेरी जानिब तो उठा करती हैं अक्सर आंखें
लोग मरते ना दर-ओ-बाम से टकरा के कभी
देख लेते जो 'कमाल' उस की समंदर आंखें
अहमद कमाल.
आईना देख रही थी मेरी पत्थर आंखें
ले उडी वक़्त की आंधी जिन्हे अपने हमराह
आज फिर ढूंढ रही है वही मंज़र आंखें
फूट निकली तो कई शहर-ए-तमन्ना डूबे
एक क़तरे को तरसती हुई बंजर आंखें
उस को देखा है तो अब शौक़ का वो आलम है
अपने हलकों से निकल आई हैं बाहर आंखें
तू निगाहों की जुबां खूब समझता होगा
तेरी जानिब तो उठा करती हैं अक्सर आंखें
लोग मरते ना दर-ओ-बाम से टकरा के कभी
देख लेते जो 'कमाल' उस की समंदर आंखें
अहमद कमाल.
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