आरज़ू थी एक दिन तुझसे मिलूं
मिल गया तो सोचता हूँ क्या कहूँ
घर में गहराती ख़ला है क्या कहूँ
हर तरफ़ दीवार-ओ-दर है क्या करूँ
जिस्म तू भी और मैं भी जिस्म हूँ
किस तरह फिर तेरा पैरहन बनूँ
रास्ता कोई कहीं मिलता नहीं
जिस्म में जन्मों से अपने क़ैद हूँ
थी घुटन पहले भी पर ऐसी न थी
जी में आता है कि खिड़की खोल दूँ
ख़ुदकुशी के सैकड़ों अंदाज़ हैं
आरज़ू का ही न दमन थाम लूँ
साअतें सनअतगरी करने लगीं
हर तरफ़ है याद का गहरा फ़ुसूँ
शीन काफ़ निज़ाम
शब्दार्थ:
साअतें-क्षणों
सनअतगरी-मीनाकारी
फ़ुसूँ-जादू
उर्दु साहित्य में ग़ज़लों का अपना एक अलग ही महत्त्व हैं। ग़ज़लें जीवन के हर पहलू को स्पर्श करती आई है। चाहे वो ख़ुशी हो या ग़म, प्यार हो या शिकवा गिला, यारी हो या दुश्मनी, जीवन के हर भाव को अपने शब्दों में बयाँ करती है ग़ज़लें। यहाँ उर्दु तथा हिन्दी के कुछ जाने माने साहित्यकारों की रचनाओं को आप तक पहुँचाने कि एक कोशिश करना चाह रहा हूँ। आशा है आप इसे बढ़ाने में अपनी राय एवं अपना योगदान ज़रूर देंगे।
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
दुष्यंत कुमार
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
दुष्यंत कुमार
वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है
वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है
उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिये बनाया है
महक रही है ज़मीं चांदनी के फूलों से
ख़ुदा किसी की मुहब्बत पे मुस्कुराया है
उसे किसी की मुहब्बत का ऐतबार नहीं
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है
तमाम उम्र मेरा दम उसके धुएँ से घुटा
वो इक चराग़ था मैंने उसे बुझाया है
बशीर बद्र
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है
उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिये बनाया है
महक रही है ज़मीं चांदनी के फूलों से
ख़ुदा किसी की मुहब्बत पे मुस्कुराया है
उसे किसी की मुहब्बत का ऐतबार नहीं
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है
तमाम उम्र मेरा दम उसके धुएँ से घुटा
वो इक चराग़ था मैंने उसे बुझाया है
बशीर बद्र
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
ढूँढने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ
मेहरबाँ होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ
डाल कर ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा
कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी के मिटा भी न सकूँ
ज़ब्त कमबख़्त ने और आ के गला घोंटा है
के उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी न सकूँ
ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना
क्या कसम है तेरे मिलने की के खा भी न सकूँ
उस के पहलू में जो ले जा के सुला दूँ दिल को
नींद ऐसी उसे आए के जगा भी न सकूँ
नक्श-ऐ-पा देख तो लूँ लाख करूँगा सजदे
सर मेरा अर्श नहीं है कि झुका भी न सकूँ
बेवफ़ा लिखते हैं वो अपनी कलम से मुझ को
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ
इस तरह सोये हैं सर रख के मेरे जानों पर
अपनी सोई हुई किस्मत को जगा भी न सकूँ
अमीर मीनाई
शब्दार्थ:
हसरत-इच्छा
ज़ब्त-सहनशीलता
पहलू-गोद
अर्श-आसमान
ढूँढने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ
मेहरबाँ होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ
डाल कर ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा
कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी के मिटा भी न सकूँ
ज़ब्त कमबख़्त ने और आ के गला घोंटा है
के उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी न सकूँ
ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना
क्या कसम है तेरे मिलने की के खा भी न सकूँ
उस के पहलू में जो ले जा के सुला दूँ दिल को
नींद ऐसी उसे आए के जगा भी न सकूँ
नक्श-ऐ-पा देख तो लूँ लाख करूँगा सजदे
सर मेरा अर्श नहीं है कि झुका भी न सकूँ
बेवफ़ा लिखते हैं वो अपनी कलम से मुझ को
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ
इस तरह सोये हैं सर रख के मेरे जानों पर
अपनी सोई हुई किस्मत को जगा भी न सकूँ
अमीर मीनाई
शब्दार्थ:
हसरत-इच्छा
ज़ब्त-सहनशीलता
पहलू-गोद
अर्श-आसमान
जिस में लाखों बरस की हूरें हों, ऐसी जन्नत को क्या करे कोई
आरजू है वफ़ा करे कोई
जी न चाहे तो क्या करे कोई
गर मर्ज़ हो दवा करे कोई
मरने वाले का क्या करे कोई
कोसते हैं जले हुए क्या क्या
अपने हक़ में दुआ करे कोई
उन से सब अपनी अपनी कहते हैं
मेरा मतलब अदा करे कोई
तुम सरापा हो सूरत-ए-तस्वीर
तुम से फिर बात क्या करे कोई
जिस में लाखों बरस की हूरें हों
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई
दाग़ देहलवी
जी न चाहे तो क्या करे कोई
गर मर्ज़ हो दवा करे कोई
मरने वाले का क्या करे कोई
कोसते हैं जले हुए क्या क्या
अपने हक़ में दुआ करे कोई
उन से सब अपनी अपनी कहते हैं
मेरा मतलब अदा करे कोई
तुम सरापा हो सूरत-ए-तस्वीर
तुम से फिर बात क्या करे कोई
जिस में लाखों बरस की हूरें हों
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई
दाग़ देहलवी
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