ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके

ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके
कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके

मेरी तबाही दिल पर तो रहम खा न सकी
जो रोशनी में रहे रोशनी को पा न सके

न जाने आह! कि उन आँसूओं पे क्या गुज़री
जो दिल से आँख तक आये मिश्गाँ तक आ न सके

रहें ख़ुलूस-ए-मुहब्बत के हादसात जहाँ
मुझे तो क्या मेरे नक़्श-ए-क़दम मिटा न सके

करेंगे मर के बक़ा-ए-दवाम क्या हासिल
जो ज़िंदा रह के मुक़ाम-ए-हयात पा न सके

नया ज़माना बनाने चले थे दीवाने
नई ज़मीं, नया आसमाँ बना न सके

जोश मलीहाबादी

आदमी आदमी से मिलता है

आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है

भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है

आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है

मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है

कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है

जिगर मुरादाबादी

असर उसको ज़रा नहीं होता

असर उसको ज़रा नहीं होता ।
रंज राहत-फिज़ा नहीं होता ।।

बेवफा कहने की शिकायत है,
तो भी वादा वफा नहीं होता ।

जिक़्रे-अग़ियार से हुआ मालूम,
हर्फ़े-नासेह बुरा नहीं होता ।

तुम हमारे किसी तरह न हुए,
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता ।

उसने क्या जाने क्या किया लेकर,
दिल किसी काम का नहीं होता ।

नारसाई से दम रुके तो रुके,
मैं किसी से खफ़ा नहीं होता ।

तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता ।

हाले-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर,
हाथ दिल से जुदा नहीं होता ।

क्यूं सुने अर्ज़े-मुज़तर ऐ ‘मोमिन’
सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता ।

-मोमिन ख़ाँ 'मोमिन'

(राहत फ़िज़ा--शांति देने वाला, ज़िक्र-ए-अग़यार--दुश्मनों की चर्चा
हर्फ़-ए-नासेह--शब्द नासेह (नासेह-नसीहत करने वाला)
यार--दोस्त-मित्र, चारा-ए-दिल--दिल का उपचार,
नारसाई--पहुँच से बाहर, अर्ज़ेमुज़्तर--व्याकुल मन का आवेदन)

वो अपने चेहरे में सौ अफ़ताब रखते हैं

वो अपने चेहरे में सौ अफ़ताब रखते हैं
इसीलिये तो वो रुख़ पे नक़ाब रखते हैं

वो पास बैठे तो आती है दिलरुबा ख़ुश्बू
वो अपने होठों पे खिलते गुलाब रखते हैं

हर एक वर्क़ में तुम ही तुम हो जान-ए-महबूबी
हम अपने दिल की कुछ ऐसी किताब रखते हैं

जहान-ए-इश्क़ में सोहनी कहीं दिखाई दे
हम अपनी आँख में कितने चेनाब रखते हैं

हसरत जयपुरी

कोई उम्मीद बर नहीं आती

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

मौत का एक दिन मु'अय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती

जानता हूँ सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़हद
पर तबीयत इधर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती

क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती

दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता
बू-ए-चारागर नहीं आती

हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती

काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुमको मगर नहीं आती

ग़ालिब

दिल में इक लहर सी उठी है अभी

दिल में इक लहर सी उठी है अभी
कोई ताज़ा हवा चली है अभी

शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी

कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी
और ये चोट भी नई है अभी

भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी

तू शरीक-ए-सुख़न नहीं है तो क्या
हम-सुख़न तेरी ख़ामोशी है अभी

याद के बे-निशाँ जज़ीरों से
तेरी आवाज़ आ रही है अभी

शहर की बेचराग़ गलियों में
ज़िन्दगी तुझ को ढूँढती है अभी

सो गये लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी

तुम तो यारो अभी से उठ बैठे
शहर में रात जागती है अभी

वक़्त अच्छा भी आयेगा 'नासिर'
ग़म न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी

नासिर काज़मी

नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं

नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उन के आने के दिन आ रहे हैं

जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है
सब उन को सुनाने के दिन आ रहे हैं

अभी से दिल-ओ-जाँ सर-ए-राह रख दो
के लुटने लुटाने के दिन आ रहे हैं

टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं

सबा फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं

चलो "फ़ैज़" फिर से कहीं दिल लगायेँ
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी

हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी

सुबह से श्याम तक बोझ ढाता हुआ
अपनी ही लाश पर खुद मजार आदमी

हर तरफ़ भागते दौडते रास्ते
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी

रोज जीता हुआ रोज मरता हुआ
हर नए दिन नया इंतजार आदमी

जिंदगी का मुकद्दर सफ़र दर सफ़र
आखरी सांस तक बेकरार आदमी

निदा फ़ाज़ली

दर्द अपनाता है पराये कौन

दर्द अपनाता है पराये कौन
कौन सुनता है और सुनाये कौन

कौन दोहराये वो पुरानी बात
ग़म अभी सोया है जगाये कौन

वो जो अपने है क्या वो अपने है
कौन दुख झेले आज़माये कौन

अब सुकूं है तो भूलने में है
लेकीन उस शख़्स को भुलाये कौन

आज फिर दिल है कुछ उदास उदास
देखिये आज याद आये कौन

जावेद अख़्तर.

इस से पहले के बेवफ़ा हो जाये

इस से पहले के बेवफ़ा हो जाये
क्यों ना ऐ दोस्त हम जुदा हो जाये

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल क्या से क्या हो जाये

हम भी मजबूरियों का उज़्र करे
और कहीं और मुबतला हो जाये

इश्क़ भी खेल हैं नसीबों का
ख़ाक हो जाये या किमिया हो जाये

अहमद फ़राज़.

आ भी जाओ की ज़िंदगी कम है

आ भी जाओ की ज़िंदगी कम है
तुम नहीं हो तो हर ख़ुशी कम है

वादा कर के ये कौन आया नहीं
शहर में आज रौशनी कम है

जाने क्या हो गया है मौसम को
धूप ज़ियादा है चांदनी कम है

आईना देख कर ख़याल आया
आज कल इनकी दोस्ती कम है

तेरे दम से ही मैं मुकम्मल हूं
बिन तेरे तेरी 'यामीनी' कम है.

यामीनी दास.