ज़िन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है

ज़िन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है

घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है

अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है

आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

शहरयार

वो बुलायें तो क्या तमाशा हो

वो बुलायें तो क्या तमाशा हो
हम न जायें तो क्या तमाशा हो

ये किनारों से खेलने वाले
डूब जायें तो क्या तमाशा हो

बन्दापरवर जो हम पे गुज़री है
हम बतायें तो क्या तमाशा हो

आज हम भी तेरी वफ़ाओं पर
मुस्कुरायें तो क्या तमाशा हो

तेरी सूरत जो इत्तेफ़ाक़ से हम
भूल जायें तो क्या तमाशा हो

वक़्त की चन्द स'अतें 'साग़र'
लौट आयें तो क्या तमाशा हो

साग़र सिद्दीकी